श्रद्धालुओं की आस्था कहां गायब हो जाती है? सौंदर्यीकरण हुआ, स्मृति घाट बना… फिर भी गंदगी का आलम
कृष्ण मुरारी पांडेय। सीवान।
18 नवंबर 2023 को सीवान नगर परिषद वार्ड संख्या 12 के नगर पार्षद जयप्रकाश गुप्ता ने नगर परिषद की सभापति सेंपी देवी, उपसभापति किरण गुप्ता और स्वर्गीय बाल्मीकि यादव की पत्नी श्रीमती चमेली देवी की उपस्थिति में रामदेव नगर महादेवा में ‘वाल्मीकि स्मृति घाट’ का उद्घाटन करवाया था।
इसके साथ ही सतीश मिश्रा के घर से लेकर दाहा नदी तक आरसीसी नाला, पीसीसी सड़क, ब्रह्म स्थान पर चबूतरे और छठ घाट का सौंदर्यीकरण कराया गया था।
उद्देश्य साफ था — छठ जैसे महापर्व पर श्रद्धालु स्वच्छ और सुंदर वातावरण में पूजा-अर्चना कर सकें।

छठ खत्म, जिम्मेदारी भी खत्म!
त्योहार खत्म होते ही छठ घाट की तस्वीर बदल जाती है। पूजा की बची हुई सामग्री, फूल-मालाएं, प्लास्टिक की थैलियां और टूटी हुई छठ प्रतिमाएं घाट के आसपास बिखरी होती हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आस्था सिर्फ त्योहार तक सीमित थी, उसके बाद घाटों और जलस्रोतों की शुद्धता की किसी को परवाह नहीं।
जल कुंभी ने लील लिया दाहा नदी का प्रवाह
दाहा नदी, जो कभी निर्मल जल की धारा थी, अब जल कुंभी से पट चुकी है। न तो नगर परिषद की निगाह इस पर पड़ रही है और न ही स्थानीय जनप्रतिनिधि कुछ ठोस कदम उठा रहे हैं।
छठ पूजा के समय यही नदी ‘आस्था का केंद्र’ बन जाती है, लेकिन बाकी समय यहां फेंका गया कचरा और उगे जलकुंभी इसकी दुर्दशा को बयां करते हैं।
जानबूझकर की जा रही उपेक्षा, अनजाने में नहीं हो रहा ये सब
छठ जैसी महापर्व की महत्ता को समझते हुए सरकार और स्थानीय निकायों ने घाटों का विकास तो कर दिया, लेकिन इनकी देखरेख की जिम्मेदारी श्रद्धालुओं और नागरिकों ने नहीं निभाई।
पूजा के बाद घाटों पर जो हालात होते हैं, वह सिर्फ लापरवाही नहीं बल्कि जानबूझकर की जा रही उपेक्षा को दिखाते हैं।

अब जरूरी है सामूहिक संकल्प
छठ महापर्व सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के बीच संतुलन का प्रतीक है। ऐसे में छठ के बाद घाटों की स्वच्छता बनाए रखना हर नागरिक का दायित्व बनता है।
स्थानीय निकायों को भी चाहिए कि वे त्योहार खत्म होने के बाद घाटों की सफाई और संरक्षण की जिम्मेदारी सुनिश्चित करें।
अगर सच में है आस्था, तो दिखे व्यवहार में भी
हर साल घाट बनते हैं, सजते हैं, लेकिन छठ बीतते ही वे बदहाली का शिकार हो जाते हैं।
अब समय आ गया है कि आस्था को केवल कर्मकांड तक सीमित न रखते हुए उसके अनुरूप व्यवहार भी दिखाया जाए।
साफ घाट, साफ जल, और प्रकृति के प्रति सम्मान — यही सच्ची श्रद्धा है।